अध्यापक और क्लासरूम टीचिंग

अध्यापक होना अलग चीज है
अध्यापक होना इतना भी आसान नही है, जितना आसान अध्यापक होना दिखता है। मसलन एक आदमी क्लासरूम में जाने से ठीक पहले तक आप जैसा मेरे जैसा ही दिखता है। लेकिन दरवाजा पार करने के बाद उसकी भूमिका, उसकी संदिग्धता बदल जाती है। सामने बैठे हुए कई सांस्कृतिक परिवेशों के समक्ष वो ऐसी सांस्कृतिक छवि के रूप में प्रकट होता है, जो अपने आप में समावेशी है। अपने आप में कई सारी असन्तुष्टियो के साथ तानाबाना बुनने की कोशिश है।
विद्यार्थी भी विद्यार्थी नही होता , वह हमेशा एक प्रश्नचिन्ह के रूप में बैठा व्यक्तित्व है। जिसके प्रश्न उसके निजी जीवन के यथार्थ है।
ऐसी स्थिति में कक्षा में कई सारे यथार्थ, संघर्ष, प्रश्न होने के बावजूद शिक्षक को उन मौजूदगियो के साथ स्थिर होना है।
छोटे बच्चों के साथ अपनी सम्भावनाएं है, तो युवाओं को अध्यापन करते वक्त आप उनकी सम्भावनाओ से ज्यादा उनके भय, मान्यताओं, उनकी टीस , उनके रंगों के चुनाव आदि से मुखातिब होते है।
फिर भी सच नाम की कोई चीज है इस सृष्टि में। जो इतनी विभिन्नताओं और इतने वजूदो को सहअस्तित्व के रूप में जोड़ देती है।
कक्षा कक्ष, कई अक्ष.
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